दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश Complete Notes PDF

दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश Complete Notes PDF
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इसलिए दक्षिण भारत के राजवंश को कंप्लीट कर करने के लिए आपको हमारे द्वारा उपलब्ध करवाई जाए नोट्स के साथ जरूर तैयारी करनी चाहिए

दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश

–  प्रमुख राजवंशों के प्रमुख शासकों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ (दक्षिण भारत के राजवंश)

चालुक्य राजवंश

बादामी / वातापी चालुक्य – (543 – 757 ई. से 552 – 750 ई. तक)

–  इस शाखा का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था।

– इस शाखा की राजधानी वातापी / बादामी कर्नाटक राज्य के बीजापुर में स्थित है।

ऐहोल अभिलेख

– ऐहोल अभिलेख प्रशस्ति के रूप में है।

– यह अभिलेख कर्नाटक के बीजापुर में स्थित है।

– मेगुती मंदिर (जैन मंदिर) के पश्चिमी भाग की दीवार पर उत्कीर्ण है।

– यह अभिलेख 643 ई. का माना जाता है।

– इस अभिलेख की भाषा संस्कृत है।

– इस अभिलेख की शैली पद्य (काव्य) शैली है।

लिपि: दक्षिणी ब्राह्मी

– इसकी रचना पुलकेशिन द्वितीय के जैन दरबारी ‘रवि कीर्ति’ द्वारा की गई है।

– इस अभिलेख में रवि कीर्ति ने स्वयं की तुलना ‘तुलसीदास’ व  ‘भास’ के साथ की है।

– इसमें पुलकेशिन द्वितीय व हर्ष के मध्य हुए युद्ध की जानकारी मिलती है।

– इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय ने हर्ष को नर्मदा के तट पर पराजित करके ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी।

बादामी शिलालेख:-

– यह शिलालेख बादामी किले के एक शिलाखंड पर उत्कीर्ण है।

– इस शिलालेख पर पुलकेशिन प्रथम (543 ई.) द्वारा बादामी किले के निर्माण की बात लिखी गई है।

पुलकेशिन प्रथम 

चालुक्य वंश के संस्थापक, इसके दो पुत्र थे-

1. कीर्तिवर्मन I      2. मंगलेश

कीर्तिवर्मन के दो पुत्र थे-

1. पुलकेशिन II         2. कुब्ज विष्णुवर्धन

– पुलकेशिन II ने अपने चाचा की हत्या कर दी  एवं स्वयं शासक बना।

– कुब्ज विष्णुवर्धन वेंगी चालुक्य वंश का संस्थापक था।      

–  पुलकेशिन प्रथम (543 – 566 ई.) वातापी चालुक्य वंश का संस्थापक था।

कीर्तिवर्मन प्रथम : (566 – 597 ई.)

– पुलकेशिन प्रथम का पुत्र था।

– कीर्तिवर्मन प्रथम को वातापी चालुक्यों का प्रथम निर्माता कहा जाता है।

पुलकेशिन II अभियान

– पुलकेशिन ने कदम्बों को पराजित किया।

– लाट व मालवा प्रदेशों पर विजय प्राप्त की।

– 630 ई. – 634 ई. के मध्य नर्मदा के तट पर हर्ष को पराजित किया।

चालुक्य पल्लव संघर्ष:-

– यह संघर्ष प्रारंभ करने का श्रेय- पुलकेशिन द्वितीय को जाता है।

– जो लगभग 200 वर्ष तक चला।

– पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम को पराजित कर काँची के उत्तरी-पूर्वी हिस्से पर अधिकार कर लिया।

– नरसिंह वर्मन ने श्रीलंका के शासक “मानवर्मा” की सहायता से पुलकेशिन द्वितीय को बादामी मे पुन: पराजित कर उसके शरीर पर “विजित” लिखवा दिया।

– पुलकेशिन द्वितीय ने शर्मसार होकर आत्महत्या कर ली।

नोट:- अजंता की गुफा संख्या एक में पुलकेशिन द्वितीय को ईरानी राजदूत शाह परवेज खुसरो द्वितीय का स्वागत करते हुए दिखाया गया है।

विक्रमादित्य II (733 ई.- 747 ई.)

– विजयादित्य का पुत्र था।

– इसके समय द.भारत पर अरबों का आक्रमण हुआ।

– इस आक्रमण का सामना करने हेतु अपने भाई “जयसिंह वर्मन प्रथम” को भेजा।

– जयसिंह ने अरबों को पराजित कर भागने पर बाध्य कर दिया।

– विक्रमादित्य II ने जयसिंह को “अवनिजनाश्रे (पृथ्वी के लोगों को शरण देने वाला)” की उपाधि दी।

– विक्रमादित्य II ने पल्लव शासक नंदिवर्मन को पराजित कर काँचीकोण्ड की उपाधि धारण की।

– विक्रमादित्य II की दो पत्नियाँ थी –

1. लोकमहादेवी –  लोकेश्वर शिव मंदिर का निर्माण वर्तमान (विरूपाक्ष) मंदिर कर्नाटक हम्पी पट्टकल में स्थित है। यहाँ पर रामायण से संबंधित दृश्य और गरुड़ की विशाल प्रतिमा है।

 2. त्रलोक्यमहादेवी – त्रिलोकेश्वर शिव मंदिर मल्लिकार्जुन शिव मंदिर हम्पी (कर्नाटक) में स्थित है।

वेंगी के चालुक्य

– वेंगी के चालुक्य वंश का संस्थापक विष्णुवर्धन था।

– विष्णुवर्धन ने विषम सिद्धि की उपाधि धारण की थी।

– जयसिंह प्रथम ने पृथ्वीवल्लभ, पृथ्वी जयसिंह तथा सर्वसिद्धि जैसी उपाधियाँ धारण की थी।

– विजयादित्य तृतीय ने पंडरंग महेश्वर नाम से शैव मन्दिर निर्मित करवाया था।

– विजयादित्य तृतीय का महान एवं सुयोग्य सेनापति पंडरंग था।

– भीम द्वितीय ने विजयवाड़ा में मल्लेश्वर स्वामी का मन्दिर बनवाया था।

– भीम द्वितीय ने विष्णुवर्धन, लोकाश्रय, राजमार्तण्ड, त्रिभुवनांकुश जैसी उपाधियाँ धारण की थी।

– वेंगी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक विजयादित्य VII था।

पल्लव वंश

– ये दक्षिण भारत मे सात वाहन वंश के सामंत थे।

– अपने आपको स्वतंत्र कर काँची के नागवंश को पराजित कर अपने वंश की नींव डाली।

– सिंहविष्णु पल्लव वंश के वास्तविक संस्थापक माने जाते हैं जिन्होंने अवनसिंह की उपाधि धारण की थी।

जानकारी के स्रोत-  

1.  संगम साहित्य में पल्लवों को “तोडीयार“ कहा गया हैं।

2.  बाहुर अभिलेख (काँची) में पल्लवों को”तोण्डई” कहा गया है।

3.   रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख: इसमें “ सुविशाख” नामक पल्लव को सौराष्ट्र का गवर्नर (प्रांतपाल) बताया गया है जिसने सुदर्शन  झील का पुननिर्माण करवाया था।

4.  दण्डी के ग्रंथ- अवंति सुंदरी में- पल्लव शासक सिंह विष्णु का उल्लेख मिलता है।

5.  मतविलास प्रहसन:- पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम द्वारा रचित है।

   जानकारी:- पल्लवकालीन सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।

6.  महावंश:- पल्लवों के प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।

7.  सी.यू.की.- ह्वेनसांग नरसिंह वर्मन प्रथम के समय काँची आया था।

– ह्वेनसांग ने नरसिंहवर्मन को सबसे महान शासक बताया था।

– समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार उसने दक्षिणापथ विजय के दौरान पल्लव शासक ”विष्णुगोप“ को पराजित किया था।

– तमिलनाडु से प्राप्त प्राकृत भाषा के अभिलेखों में ‘पल्लव वंश’ के प्रथम शासक का नाम ‘सिंहवर्मन’ मिलता है।

सिंह विष्णु:- (575 ई. 600ई.)

– पल्लव वंश के संस्थापक थे।

– काँची को राजधानी बनाया  था।

– उपाधि:- अवनी सिंह

महेन्द्रवर्मन प्रथम  – (600-630 ई.)

– सिंह विष्णु का पुत्र था।

– उपाधियाँ – मतविलास, विचित्रचित, गुणभर

– इसी के समय चालुक्य (बादामी) पल्लव संघर्ष प्रारंभ हुआ।

– चालुक्य शासक-पुलकेशिन II ने आक्रमण किया।

– महेन्द्रवर्मन प्रारंभिक समय में जैन अनुयायी था परन्तु शैव संत “अप्पर” के प्रभाव में आकर शैव अनुयायी बना था।

– महेन्द्रवर्मन ने त्रिचनापल्ली, महेन्द्रवाड़ी, दलवणूर में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था।

– पल्लव वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था।

– इसका काल पल्लवों का स्वर्णिम युग था।

– महेन्द्रवर्मन का पुत्र था।

– नरसिंहवर्मन ने साम्राज्य विस्तार हेतु अनेक युद्ध लड़े थे-

– ग्रंथ – महेन्द्रवर्मन ने “मतविलास प्रहसन” नामक ग्रन्थ लिखा था।

– यह हास्य नाटिका है।

परमेश्वरवर्मन – (670-700 ई.)

– महेन्द्रवर्मन का पुत्र था।

– उपाधियाँ – लोकादित्य, एकमल्ल, रणजय, अत्यंतकाम, उग्रदण्ड, गुणभाजन, विद्याविनीत

प्रमुख घटना –  

– बादामी चालुक्य शासक विक्रमादित्य ने काँची पर आक्रमण कर राजधानी पर अधिकार कर लिया था।

– कुछ समय बाद परमेश्वरवर्मन ने काँची पर पुन: अधिकार कर लिया था।

– शैव अनुयायी था – माम्मलपुरम में एक गणेश मंदिर का निर्माण कराया है।

नरसिंह वर्मन II (700-728 ई.)

– परमेश्वरवर्मन का पुत्र था।

– उपाधि – राजसिंह, शंकरभक्त, आगमप्रिय (विद्या का प्रेमी)

प्रमुख घटनाएँ

– चालुक्य – पल्लव संघर्ष विराम

– राजधानी काँची में “कैलाशनाथ मंदिर” का निर्माण करवाया था।

– महाबलीपुरम् में “शौर” मंदिर का निर्माण करवाया था।

– इसने राजसिंह शैली प्रचलित की थी।

– इसके दरबार में संस्कृत के महान विद्वान “दण्डिन (दण्डी)” निवास करते थे, जिनकी रचनाएँ – अवन्ति सुंदरी, दशकुमार चरित, काव्यादर्श

– अपना दूत मंडल – चीन भेजा

– नागपट्टनम (तमिल) में बौद्ध भिक्षुओं हेतु

– “बौद्ध विहार” का निर्माण करवाया था।

परमेश्वरवर्मन II (728-730 ई.)

– नरसिंह वर्मन II का पुत्र था।

– तिरूवाड़ी में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था।

नंदिवर्मन II (730-800 ई.)

– कुछ इतिहासकारों के अनुसार – परमेश्वरवर्मन संतानहीन था।

– अत: काँची के विद्वानों ने पल्लव वंश की एक समान्तर शाखा के राजकुमार “नंदिवर्मन II” जो कि “हिरण्यवर्मन” का पुत्र था, को काँची का शासक बनाया था।

निर्माण कार्य:-

– नंदिवर्मन II ने काँची में “मुक्तेश्वर” शिव मंदिर व “बैकुण्ड पेरूमाल” मंदिरों का निर्माण करवाया था।

 Note:- नंदिवर्मन II के बाद दंतिवर्मन (800-846) तक शासक रहा, जिसे अभिलेखों में “विष्णु का अवतार” कहा गया है।

 – नंदिवर्मन III दंतिवर्मन का पुत्र था। इसने गंगो को पराजित किया।

 – चोल, राष्ट्रकूट व गंगवंश के साथ मिलकर “पाण्डेयों” को पराजित किया तथा कावेरी के क्षेत्र पर पुन: अधिकार कर लिया था।

 – पल्लव ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे इसी काल में अलवार व नयनार संतो ने भक्ति आन्दोलन प्रांरभ किया

1. मण्डप

2. रथ

3. विशाल मंदिर- विशाल प्रवेश-गोपुरम्

– पर्सी ब्राउन ने पल्लव स्थापत्य कला को 4 भागों में विभाजित किया है-

पल्ल्वकालीन कला

1. महेन्द्रवर्मन शैली (610-640 ई.)

– इस शैली में कठोर पाषाण (चट्‌टानों) को काटकर गुहा मंदिरों का निर्माण जिन्हें “मण्डप” कहा गया है।

– मण्डप साधारणत: स्तंभयुक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार पर एक दो कक्ष निर्मित होते हैं। जैसे- पल्लवरम का पंचपांडव मंडप भैरव कोण्डा का मंडप, त्रिमूर्ति मंडप

2. माम्मल शैली (640-680ई.):-

– इस शैली का विकास- नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा किया गया था।

– इसके अन्तर्गत दो प्रकार के स्मारक-(1) मण्डप (2) रथ या एकाश्मक मंदिर

– इन एकाश्मक मंदिरों में “द्रौपदी रथ” मंदिर सबसे छोटा है, जबकि “धर्मराज रथ” सबसे बड़ा व सुंदर है।

– इन रथ मंदिरों को “सात पैगोड़ा” कहा जाता है।

1.  द्रौपदी रथ- सबसे छोटा

2.  नकुल-सहदेव रथ

3.  अर्जुन रथ

4.  भीम-रथ

5.  धर्मराज रथ-सबसे बड़ा/सुंदर था, इस पर नरसिंहवर्मन की मूर्ति भी है।

6.  गणेश रथ

7.  पिण्डारी रथ

8.  वलयकंट्‌टैथ रथ

– कुल रथ मंदिरों की संख्या-8 हैं।

– ये रथ मन्दिर संभवत: शिव मन्दिर है।

– इन रथ मंदिरों पर-शिव, गंगा, पार्वती, गणेश, द्वन्द्व, हरिहर, ब्रह्मा का अंकन मिलता है।

– सप्तपेगोडा (महाबलीपुरम)- मूर्तिकला के लिए विख्यात है।

3. राजसिंह शैली (680-800ई.):-

– गुहामंदिरों के स्थान पर ईंट व पाषाण की सहायता से “इमारती मंदिरों का निर्माण किया गया था।

– शैली:- नरसिंह वर्मन II द्वारा

– काँची का कैलाशनाथ मंदिर इसी शैली में निर्मित है जिसका निर्माण नरसिंह वर्मन II के समय प्रारंभ होकर- परमेश्वर वर्मन II के समय पूर्ण हुआ था।

– ईश्वर मंदिर व मुकन्दर पर मंदिर राजसिंह  शैली के है।

4. नंदिवर्म/अपराजित शैली (800-900 ई.)

 – इस शैली में छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण हुआ।

 – जैसे- काँची का “मुक्तेश्वर मंदिर” – मंगलेश्वर मंदिर, गुडी मल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर

चोल

– अशोक के दूसरे एवं तीसरे शिलालेखों में चोल साम्राज्य का उल्लेख मिलता है।

– संगम साहित्य में चोल शासक करिकाल तथा उसकी राजधानी उरैयूर का वर्णन है।

– महावंश – बौद्ध ग्रन्थ

– रचना – सिंहली द्वीप (श्रीलंका) में

– चोल शासक – परान्तक प्रथम द्वारा पाण्ड्य शासकों पर विजय का उल्लेख मिलता है।

– राजेन्द्र प्रथम द्वारा श्रीलंका विजय का उल्लेख मिलता है।

– दीपवंश व महावंश को सिंहली अनुश्रुतियों के रूप में जाना जाता है (दोनों ही बौद्ध ग्रन्थ है)

– वीरशोलियम् :– रचना – बुद्धमित्र

– व्याकरण ग्रन्थ

– उल्लेख वीर राजेन्द्र के बारे में जानकारी मिलती है।

अभिलेख :-  

1.  लीडन दानपत्र लेख – राजराज प्रथम के बारे में जानकारी मिलती है।

2.  तंजौर अभिलेख – राजराज प्रथम के बारे में जानकारी मिलती है।

3.  करन्दे अभिलेख – राजेन्द्र प्रथम के बारे में जानकारी मिलती है।

चोल वंश

– दक्षिण भारत का सबसे प्राचीनतम वंश माना जाता है।

– उदय : संगमकाल (3 शताब्दी) में परन्तु राजनीतिक उत्थान नवीं शताब्दी में हुआ था।

– चोल का शाब्दिक अर्थ – घूमना

विजयालय (850 ई. – 871 ई.)

– 9वीं शताब्दी में चोल वंश का संस्थापक विजयालय था जिसने पल्लवों से सत्ता प्राप्त की।

– विजयालय ने तंजौर को अपनी राजधानी बनाया तथा नरकेसरी की उपाधि धारण की।

परान्तक प्रथम (907 ई. – 953 ई.)

– पांड्य नरेश राजसिंह II को पराजित कर ‘मदुरैकोण्ड’ की उपाधि धारण की।

– परान्तक II सुंदर चोल के नाम से प्रसिद्ध था।

– परान्तक प्रथम के उत्तरमेरुर अभिलेख से चोलकालीन “स्थानीय स्वशासन” की जानकारी मिलती है।

राजराज प्रथम (985-1014 ई.)

– प्रथम सबसे प्रतापी शासक था।

– राजराज I (985-1014) मुम्माडि चोलदेव, जयगोंड, चोल मार्तंड आदि नामों से भी जाना जाता था।

– राजराज-I ने श्रीलंका की राजधानी अनुराधपुर को नष्ट कर दिया तथा पोलनरुआ नई राजधानी बनी।

– श्रीलंका के शासक महेन्द्र-v को पराजित कर श्रीलंका के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया था।

– इस उत्तरी भाग को चोल साम्राज्य का एक प्रांत बनाया तथा इसका नाम “मुम्डीचोलमंडलम” रखा था।

– 1000 ई. में इसने भू-सर्वेक्षण किया ताकि भू-राजस्व का निर्धारण किया जा सके।

रचनाकार एवं कृति     

रचनाकारकृति
1.  पद्मगुप्तनवसाहसांकचरित
2.  विल्हणविक्रमांकदेवचरित
3.  कल्हणराजतरंगिणी
4.  हेमचन्द्रकुमारपालचरित
5.  नयनचन्द्र सूरिहम्मीरकाव्य
6.  जयानकपृथ्वीराज विजय
7.  वाक्पतिगौडवहो
8.  संध्याकर नन्दीरामपालचरित
9.  क्षेमेन्द्रवृहत्कथामंजरी

– उसने तंजौर में विश्वप्रसिद्ध राजराजेश्वर/वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।

– उसके शासनकाल में शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोतुंग वर्मन को नागपट्टम में बौद्ध विहार बनाने की अनुमति दी गई।

– राजेन्द्र चोल के उत्तर की ओर किए गए सैन्य अभियान में गंग शासक तथा पाल शासक (महीपाल) को पराजित किया गया। इस अभियान की सफलता पर राजेन्द्र I ‘गंगैकोण्डचोल’ की उपाधि धारण की। साथ ही गंगईकोंडचोलपुरम नामक नगर का निर्माण किया गया।

राजेन्द्र-II (1052-1064 ई.) :-

– अपने पिता राजाधिराज की हत्या का बदला लेने हेतु कोप्पम की युद्ध भूमि में ही सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया था।

– इस विजय के उपलक्ष्य में “कोल्हापुर” में एक विजय स्तंभ का निर्माण करवाया तथा अपना राज्याभिषेक करवाया था।

वीर राजेन्द्र (1064-1070 ई.) :-

– वीर राजेन्द्रराजेन्द्रII का पुत्र था।

– 1066 में इसने कल्याणी के शासक सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया था 

– सोमेश्वर ने अगले वर्ष पुनलड़ने को चुनौती दी थी।

– 1067-68 कुंडलसंगम के युद्ध में सोमेश्वर प्रथम बीमार होने के कारण स्वयं  आकर अपनी सेना को वीर राजेन्द्र से लड़ने भेजा था।

– वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर की सेना को पराजित किया था।

– तुंगभद्रा नदी के किनारे “विजय स्तंभ”  राजकेसरी की उपाधि धारण की थी।

कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई.) :-

– कुलोत्तुंग I चोल – चालुक्य वंश का प्रथम शासक था।

– कौन? मूलत: यह वेंगी चालुक्य शासक राजेन्द्र द्वितीय था, जिसने अधिराजेन्द्र की मृत्यु के बाद चोल साम्राज्य पर अधिकार कर अपना राज्याभिषेक “कुलोत्तुंग प्रथम” के नाम से करवाया था।

– रामानुज को इनके कारण श्रीरंगम छोड़ना पड़ा।

राजेन्द्र-III (1246-1279 ई.) :-

– चोल वंश का अंतिम शासक।

– इसी ने मदुरै के पाण्ड्य शासक सुन्दर पाण्ड्य, चेर, काकतीय व होयसल पर विजय प्राप्त की थी।

– सुंदर पाण्ड्य ने राजेन्द्र-III पर आक्रमण कर पराजित किया व इसे अपना सामंत बना लिया था।

चोल प्रशासन

– चोल प्रशासन केन्द्रीय नियंत्रण के साथ – साथ स्थानीय स्वायत्तता के लिए प्रसिद्ध था।

– शासन की प्रकृति- राजतंत्रात्मक थी।

– राजा की मृत्यु के बाद- ज्येष्ठाधिकार था।

– उपराजा का दर्जा सामान्यत- राजकुमारियों को दिया जाता था।

– प्रशासन से संबंधित शब्दावली:

1. राजा के मौखिक आदेश- तिरुवायकेल्लि कहलाता था।

दो प्रकार के सरकारी अधिकारी-

1. पेरुन्दनम: उच्च श्रेणी के अधिकारी

2. शेरुन्दम निम्न श्रेणी के अधिकारी

–  वैडेक्कार: राजा के व्यक्तिगत अंगरक्षक

–  उडेनकुट्टम: शाब्दिक अर्थ: सदा प्रस्तुत समूह

–  उडेनकुट्टम: में राजा के निजी सहायक शामिल होते थे।

– उडेनकुट्टम में आदेशों को लिपिबद्ध करने का कार्य किया जाता था।

– अधिकारियों को वेतन के रूप  में भूमि दी जाती थी।

साम्राज्य विभाजन:-   

– प्रशासन इकाई- केन्द्र (देश)

– मण्डलम् (राज्य/प्रांत)

– कोट्टम/ वलनाडु:जिला

– नाडु- तहसील

– कुर्रम- ग्राम पंचायत

– गाँव- प्रशासन की सबसे छोटी इकाई।

– इनके सिक्कों पर – व्याघ्र, मछली, धनुष, वराह का अंकन होता था।

– दक्षिण भारत में वराह प्रकार का सिक्का सबसे ज्यादा प्रचलित था।

– ताँबे के सिक्के हेतु काकणी शब्द का प्रयोग किया गया था।

– उत्तम चोल प्रथम चोल शासक जिसने सोने के सिक्के चलाए।

सैन्य प्रशासन-

– चोलों की 4 प्रकार की सेना थी- 1. पैदल सेना, 2.  अश्व सेना, 3. गज सेना, 4. जल सेना

– चोलों के पास शक्तिशाली नौसेना थी।

– ग्रामीण स्तर पर संस्थाओं को स्वायत्तता दी गई थी।

– ग्राम स्तर पर उर तथा सभा या महासभा संस्थाएँ थी।

कला एवं संस्कृति :

– चोलकाल में पल्लवों द्वारा प्रारंभ की गई द्रविड़ मंदिर स्थापत्य कला अपने चरम विकास पर पहुँच गई थी।

– चोलकालीन मंदिर- आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे।

चोल मंदिरों की विशेषता

– इनका निर्माण ऊँचे वर्गाकार चबूतरे पर किया जाता था।

– ऊँचे विमान बनाए जाते थे।

– मंदिरों में राजा की प्रतिमा स्थापित की जाती थी तथा उनका पूजन देवता के रूप में किया जाता था।

– भीतरी भाग (गर्भग्रह)

– भगवान की प्रतिमा स्थापित की जाती थी।

– चोल मंदिरों के संदर्भ में फर्ग्यूसन का कथन- चोल कलाकारों ने इन मंदिरों का निर्माण दानवों की भाँति किया तथा रत्नकारों (जोहरियों) की तरह विन्यास किया था।

 सभी मंदिर तमिलनाडु में स्थित है-

मंदिरशासकस्थान
चोलेश्वर मंदिर(शिव)विजयालयनरतमल्लै (तमिल)

– बृहदेश्वर मंदिर (राजराजेश्वर मंदिर) बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण- राजराज प्रथम ने करवाया था।

– बृहदेश्वर मंदिर स्थित है- तंजौर (दारासुरम)

– द्रविड़ शैली का सर्वोत्कृष्ट नमूना माना जाता है।

– 1987 वर्ष में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत (धरोहर) सूची में शामिल किया गया था

– त्रिभुवनेश्वर मंदिर- कुलोत्तुंग III- त्रिभुवन तंजौर

– शिव मंदिर- अज्ञात- त्रिवलीश्वर

– यह मंदिर भी चोलकालीन है।

– कम्हेश्वर मंदिर- कुलोत्तुंग III – त्रिभुवन (कुंभकोणम)

– सबसे बड़ा मंदिर- बृहदेश्वर शिव मंदिर।

– समाज में क्षत्रिय एवं वैश्य का अस्तित्व नहीं था।

– वलंगै (दायीं भुजा वाले) तथा इड़गै (बायीं भुजा वाले) विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग थे।

– वैष्णव संतों को आलवार तथा शैव संतों को नयनार कहा जाता था।

– चोल शासनकाल में शैव एवं वैष्णव दोनों धर्मों  का प्रचार हुआ।

– अधिकांश चोल शासक शैव मतानुयायी थे।

– चोलकालीन वैष्णव मत के प्रधानाचार्य रामानुज विशिष्टा ने द्वैतवाद मत का प्रतिपादन किया।

– विजयालय चोल ने नार्त्तामलाई में चोलेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया।

– चोलों के अधीन चित्रकला का भी विकास हुआ।

Blood Circulatory System Notes in Hindi : रुधिर  परिसंचरण तंत्र 

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3 thoughts on “दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश Complete Notes PDF”

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