जब भी आप प्राचीन भारत का इतिहास विषय पढ़ाते हैं तो उसमें आपको गुप्तकाल के बारे में पढ़ने के लिए मिलता है अगर आप इससे संबंधित समस्त जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको हमारी इस पोस्ट को पूरा पढ़ना चाहिए जिसमें हमने इससे संबंधित संपूर्ण नोट्स बिल्कुल सरल एवं आसान भाषा में तैयार किए हैं यह नोट्स इन सभी विद्यार्थियों के लिए बहुत काम आएंगे जो घर पर रहकर बिना किसी कोचिंग के किसी भी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं
प्राचीन भारत का इतिहास – गुप्तकाल
तीसरी शताब्दी में एक शक्तिशाली राजवंश का उदय हुआ जिन्होंने भारत में एक बार पुन: राजनैतिक एकता की स्थापना की।
गुप्त कुषाणों के सामन्त थे।
गुप्त शासकों का क्रम
1. श्रीगुप्त (संस्थापक, आदिपुरुष, गूढ़पुरुष)
2. घटोत्कच
3. चन्द्रगुप्त प्रथम (वास्तविक संस्थापक)
4. समुद्रगुप्त (महानतम शासक)
5. रामगुप्त
6. चंद्रगुप्त द्वितीय(विक्रमादित्य)
7. कुमारगुप्त प्रथम
8. स्कन्दगुप्त
9. पुष्यगुप्त
10. कुमारगुप्त II
11. बुद्धगुप्त
12. नरसिंह गुप्त “बलादित्य”
13. भानुगुप्त
14. वेन्यगुप्त
15. कुमारगुप्त III
16. विष्णुगुप्त (अंतिम शासक)
दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश Complete Notes PDF
मुग़ल साम्राज्य का सम्पूर्ण इतिहास
श्री गुप्त (275 ई.-300 ई.)
– इसे गुप्तों का आदिपुरुष (गूढ़ पुरुष) कहा जाता है।
– गुप्त वंश के संस्थापक – श्री गुप्त
– गुप्तकालीन अभिलेखों के आधार पर ‘श्री गुप्त’ गुप्तों के आदिराजा थे।
– श्रीगुप्त गुप्त वंश का प्रथम शासक है, जिसने ‘महाराज’ की उपाधि धारण की।
चन्द्रगुप्त – प्रथम (319ई.-350 ई.) :
– चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
– चन्द्रगुप्त – प्रथम गुप्तवंश का प्रथम प्रसिद्ध राजा हुआ।
– गुप्त वंश का प्रथम शासक जिसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।
– चन्द्रगुप्त ने वैशाली के प्राचीन लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया तथा कुमार देवी प्रकार के सिक्के चलाए ।
– कुमारदेवी भारतीय इतिहास की प्रथम राजकुमारी (महारानी) जिनके नाम के सिक्के चलाए गए।
– इन्होंने अपने राज्यारोहण की स्मृति में 319 ई. में गुप्त संवत् आरम्भ किया।
समुद्रगुप्त (350 ई.-375 ई.) :
जानकारी : प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद स्तंभ लेख)
रचना : हरिषेण (कवि)
उत्कीर्ण : तिलभट्ट
भाषा : विशुद्ध संस्कृत
शैली : गद्य + पद्य (चम्पू)
लिपि : ब्राह्मी लिपि
– प्रयाग प्रशस्ति को प्रकाश मे लाने का श्रेय “एन्ट्रायर” को है।
– चन्द्रगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना।
– विसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन’ कहा है।
– समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिक्कों में कुछ पर ‘अश्वमेध पराक्रम’ अंकन तो कुछ पर सम्राट को वीणा वादन करते हुए दिखाया गया है।
– समुद्रगुप्त को उसके सिक्को पर लिच्छवी दोहित्र भी कहा जाता है।
– ऐरण अभिलेख में समुद्रगुप्त को प्रसन्न होने पर कुबेर के समान तथा रूष्ट होने पर यमराज के समान बताया गया।
– चीनी स्रोत के अनुसार श्रीलंका के शासक मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त से बोधगया में बौद्धमठ बनाने की अनुमति माँगी।
– समुद्रगुप्त को 100 युद्धों के विजेता बताया गया।
– समुद्रगुप्त द्वारा अपनाई गई नीतिया
(1) आर्यावर्त – प्रसभोद्वरण (जड़मूल से उखाड़ फेंकना)
(2) दक्षिणापथ – ग्रहणमोक्षानुग्रह
(3) आटविक राज्य – परिचारकीकृत नीति
(4) सीमावर्ती राज्य – सर्वकरदान, आज्ञाकरण, प्राणगमन
(5) विदेशी शक्तियों – गुरूत्मंदक स्वविषय भुक्तिशासन याचना (शक, कुषाण)
– कृष्णचरित्र का रचयिता समुद्रगुप्त था
– समुद्रगुप्त द्वारा किए गए अश्वमेघ यज्ञ का उल्लेख प्रयाग प्रशास्ति में नहीं आता है।
– प्रयाग प्रशस्ति पर बीरबल व जहाँगीर का लेख भी मिला है।
समुद्रगुप्त के 6 प्रकार के सोने के सिक्के:-
1. गरुड़ :
– इसके अग्र भाग पर गुरुड़ का अंकन है।
– इसके पृष्ठ भाग पर सिहसनारूढ समुद्र के साथ दत्तदेवी का अंकन है।
– उपाधि : पराक्रमांक – शब्द उत्कीर्ण
2. धनुर्धारी
– उपाधि : अप्रतिरथ – जिसके विजयरथ को रोका नहीं जा सके।
नोट : सम्पूर्ण गुप्तों में केवल समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त II ने ही यह उपाधि धारण की।
3. परशु :
– उपाधि : कृतांत परशु
4. अश्वमेध :
– अग्र भाग पर अश्वमेध पराक्रमांक उपाधि का उल्लेख है।
– पृष्ठभाग पर दत्तदेवी के साथ अश्वमेध यज्ञ अंकित है।
5. व्याघ्रहनन :
– इसके मुख भाग पर व्याघ्र पराक्रम: की उपाधि अंकित है।
6. वीणावादिन :
– इसमें समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए दिखाया गया है, उपाधि – कविराज।
नोट : समुद्रगुप्त को उसके सिक्कों पर “लिच्छवी दौहित्र” भी कहा गया है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412/14 ई.) :
– रामगुप्त के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय राजा बना। उसका दूसरा नाम देवराज तथा देवगुप्त भी था। उसने अपने साम्राज्य को विवाह संबंधों और विजयों द्वारा बढ़ाया। उसने नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा से विवाह किया।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से किया।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को पराजित कर ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। उसने शक शासक “रुद्रसिंह तृतीय” को पराजित किया शक के विरुद्ध विजय के उपलक्ष्य में उसने चाँदी के सिक्के जारी किए। दिल्ली के महरौली लौह स्तम्भ अभिलेख में (संस्कृत भाषा)राजा चन्द्र का समय चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ मिलाया जाता है।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में कालिदास और अमरसिंह जैसे अनेक विद्वान थे। फाह्यान (399-414 ई.) इसी के शासनकाल में भारत आया था।
– फाह्यान ने ‘फो-क्यों-की’ नामक ग्रंथ लिखा।
– चन्द्रगुप्त-द्वितीय ने अपने साम्राज्य की दूसरी राजधानी उज्जैन को बनाया तथा प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र को।
– विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने वाला प्रथम गुप्त शासक।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपधित्या – देवक्षी, देवगुप्त, देवराज, तत्परिगृहीत, विक्रमादित्य, विक्रमांक, परमभागवत, राजाधिराऋर्षि
चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नवरत्न-
1. कालिदास
2. वराहमिहिर
3. शंकु
4. धन्वन्तरी
5. क्षपणक
6. अमरसिंह
7. वेताल भट्ट
8. घटकर्पर
9. वर रुचि
आर्यभट्ट नवरत्नों में शामिल नहीं था।
कुमारगुप्त (414-455 ई.) :
– उपाधियाँ : महेन्द्रादित्य, श्री महेंद्र, अश्वमहेंद्र।
– प्रथम शासक जिसके अभिलेख – बांग्लादेश से भी प्राप्त होते हैं।
– गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख लगाने का श्रेय कुमार गुप्त को जाता है।
– गुप्त शासकों में सर्वाधिक प्रकार के सिक्के (14 प्रकार) चलाने का श्रेय प्राप्त है।
– चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कुमारगुप्त का नाम ‘शक्रादित्य’ बताया है।
– इसने बड़ी संख्या में मुद्राएँ जारी करवाई। इसके द्वारा जारी की गई। मुद्राओं का एक बड़ा भंडार बयाना (भरतपुर) में मिला, जिसमें चाँदी की मयूरशैली की मुद्राएँ सर्वोत्कृष्ट थी।
– मध्यभारत (पाटलिपुत्र) में चाँदी के सिक्के चलाने का श्रेय जाता है।
– कुमार गुप्त ने अपने सिक्कों पर गरुड़ के स्थान पर मयूर का अंकन करवाया, जिससे इसके शैव अनुयायी होने का प्रमाण मिलता है।
– मंदसौर अभिलेख के रचयिता- वत्सभट्टि है।
नालन्दा बौद्ध विहार
– नालन्दा बौद्ध विहार की स्थापना कुमार गुप्त प्रथम के समय हुई।
– नालन्दा विश्वविद्यालय को बौद्ध धर्म का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है।
– यहाँ धर्मगंज नामक पुस्तकालय है जिसके तीन भाग हैं-
1. रत्नरंजक, 2. रत्नसागर, 3. रत्नोदधी
– चीनी ह्वेनसांग ने नालन्दा से शिक्षा प्राप्त की तथा वापस चीन जाते समय अपने साथ 6000 बौद्ध ग्रंथ ले गया।
स्कंदगुप्त (455-467 ई.) :
– उपाधियाँ – क्रमादित्य, विक्रमादित्य, शक्रोपम, परमभागवत
– गुप्त वंशावली का अन्तिम प्रतापी शासक माना जाता है।
– अपने पिता कुमार गुप्त के समय पुष्यमित्रों के आक्रमण का सामना किया तथा उनकी मृत्यु के बाद शासक बना।
– राज्यारोहण के तुरन्त बाद इसे हूणों के आक्रमण का सामना करना पड़ा।
– स्कंदगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख तथा जूनागढ़ शिलालेख में हूणों पर स्कंदगुप्त की विजयों का उल्लेख है।
– जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को ‘मलेच्छा’ कहा गया है।
– जूनागढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है कि स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था। इस झील का पुनर्निर्माण पर्णदत्त और उसके पुत्र चक्रपालित की निगरानी में करवाया गया था।
– गढ़वा अभिलेख स्कन्दगुप्त का अंतिम लेख है।
– स्कन्धगुप्त ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया।
– स्कन्दगुप्त के समय के सिक्कों में मिलावट आना शुरू हो गई थी
– स्कन्दगुप्त ने नंदी (बैल) प्रकार की मुदाएं चलाई।
– बौद्ध धर्म अपनाने वाला प्रथम गुप्त शासक पुरुषगुप्त था जो सर्वाधिक आयु (वृद्धावस्था) में शासक बना।
– सती होने का सर्वप्रथम उल्लेख भानुगुप्त के एरण अभिलेख में मिलता है।
गुप्त काल में कला व संस्कृति
गुप्तकालीन प्रशासन:-
– गुप्त काल को हिन्दू संस्कृति का स्वर्ण-युग व क्लासिकल युग कहा गया है।
– गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विंध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक था।
– गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
– गुप्त साम्राज्य की शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी।
– गुप्त प्रशासन में मौर्यकाल के विपरीत विकेन्द्रीकरण की प्रवृति बढ़ने लगी।
– गुप्त सम्राटों को ‘महाराजाधिराज’, परमभट्टारक, एकाधिराज, महाराजाधिराज पृथ्वीपाल, परमेश्वर, सम्राट, परमदेवता, चक्रवर्तिन आदि उपाधियाँ थी।
केन्द्रीय अधिकारी:-
1. प्रतिहार – सुरक्षा अधिकारी
2. महाप्रतिहार – सुरक्षा अधिकारियों का मुखिया
3. महाबलाधिकृत – सेनापति (महसेनापति)
4. महादण्डनायक – मुख्य न्यायाधीश
5. महासंधिविग्राहिक – सामान्य दिनों में विदेशी मंत्री तथा युद्धकाल में शांति/संधि करना
6. कुमारामात्य – सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी (वर्तमान IAS जैसा)
7. अमात्य – गुप्तकालीन नौकरशाह
8. पुस्तपाल – भूमि का लेखा-जोखा रखने वाला
9. दण्डपाशिक – गुप्तकालीन पुलिस अधिकारी (वर्तमान SP के समान)
10. गोल्मिक – वन अधिकारी
11. विनयस्थिति स्थापक – सर्वोच्च धार्मिक अधिकारी
12. महाअक्षपटलिक – आय-व्यय का ब्यौरा रखने वाला (वित्त मंत्री), लेखाधिकारी
13. शोल्किक – सीमा शुल्क वसूलने वाला अधिकारी
14. ध्रुवाधिकारणिक – राजस्व संग्रह करने वाला अधिकारी
15. रणभंडागारिक – सेना की सामग्री जुटाने वाला अधिकारी
16. महा भंडाराधिकृत – कोषाध्यक्ष (राजकोषीय अधिकारी)
17. अग्रहारिक – दान विभाग का प्रमुख
18. करणिक – लिपिक
प्रान्तीय शासन
– गुप्त काल में प्रान्त को भुक्ति, अवनी, देश कहा जाता था।
– प्रांतपति को गोप्ता या उपरिक कहा जाता था।
– गुप्त प्रशासन के प्रमुख प्रान्त थे-
काल | प्रान्त | प्रान्तीय शासन |
चन्द्रगुप्त द्वितीय | तीरभुक्ति | गोविंद गुप्त |
कुमार गुप्त प्रथम | पूर्वी मालवा (एरण) | घटोत्कच गुप्त |
कुमार गुप्त प्रथम | उत्तरी बंगाल (पुण्ड्रवर्द्धन) | चिरादत्त |
स्कन्द गुप्त | सौराष्ट्र | पर्णदत्त |
– अन्य प्रान्त पश्चिमी मालवा (अवन्ति), मगध आदि।
– गुप्त साम्राज्य की इकाई विभाजन
– जिला को ‘विषय’ कहा जाता था, जिसका प्रधान अधिकारी ‘विषयपति’ (कुमारामात्य) होता था।
– गुप्तकाल के प्रमुख नगर में नगरपालिकाएँ चलती थी और नगर का प्रधान अधिकारी ‘पुरपाल’ होता था।
– जूनागढ़ के लेख से जानकारी मिली कि गिरनार नगर का ‘पुरपाल चक्रपालित’ था, जो सौराष्ट्र के उपरिक (राज्यपाल) पर्णदत्त का पुत्र था।
गुप्त काल न्याय-प्रशासन-
– गुप्त काल में सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।
– सम्राट के अलावा एक मुख्य न्यायाधीश होता था-महादण्डनायक।
– स्मृति ग्रन्थों में ‘पूग’ तथा ‘कुल’ नामक न्याय करने वाली संस्थाओं का भी उल्लेख है।
गुप्तकालीन सैनिक संगठन-
– महाबलाधिकृत- सेना का सर्वोच्च अधिकारी
– महापीलुपति -हाथियों की सेना का प्रधान अधिकारी
– भटाश्वपति -घुड़सवारों की सेना का प्रधान अधिकारी।
भूमि व राजस्व-
– मन्दिरों, ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी उसे ‘अग्रहार’ कहा जाता था। यह भूमि सभी करों से मुक्त होती थी।
– गुप्तकाल में भूमि – कर संग्रह करने के लिए भू-आलेखों को सुरक्षित रखने के लिए ‘महाक्षपटलिक’ और ‘करणिक’ नाम के अधिकारी होते थे।
– गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को ‘उद्रंग तथा भागकर’ कहा जाता था। स्मृति ग्रन्थों में इसे राजा की वृत्ति कहा गया है।
– गुप्तकाल में राजस्व उपज का छठाँ भाग लिया जाता था।
– गुप्तकाल में कर की दर 1/4 से 1/6 के बीच होती थी। कृषक हिरण्य (नकद) या मेय (अन्न) दोनों रूप में कर जमा कर सकते थे।
गुप्तकालीन आर्थिक जीवन
– गुप्त काल शासनकाल आर्थिक दृष्टि से समृद्ध व सम्पन्न था।
– कालिदास ने कृषि व पशुपालन को महत्त्व दिया है।
– गुप्त काल में व्यवसाय व उद्योग संचालन का कार्य श्रेणियाँ (Guilds) करती थी जो समिति थी।
– मंदसौर अभिलेख में रेशमी सूत बुनने वालों की समिति – पट्वाय श्रेणी का उल्लेख है।
– इन्दौर अभिलेख में ‘तैलिक श्रेणी’ का उल्लेख है।
– गुप्त काल में श्रेणियाँ बैंकों का काम भी करती थी।
– गुप्त काल में सोने व चाँदी के सिक्कों का अनुपात क्रमश: 1:16 था।
– गुप्त काल में उज्जयिनी, भड़ौच, प्रतिष्ठान, विदिशा, पाटलिपुत्र, प्रयाग, ताम्रलिप्ति, वैशाली, अहिच्छत्र, कौशाम्बी, मथुरा आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी के रूप में विकसित किया था।
– इस काल में भारतीय मालवाहक जहाजों का निर्माण करने लगे। गंगा, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी व ब्रह्मपुत्र नदियों से व्यापार होता था।
– गुप्त काल में बंगाल में ताम्रलिप्ति व पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ (भड़ौच) प्रमुख बन्दरगाह थे।
– गुप्त काल में व्यापारी एक जगह से दूसरी जगह वस्तुओं को लेकर जाते थे तो वह ग्रुप में चलते थे। इसे ‘सार्थ’ और इनके मुखिया को ‘सार्थवाह’ कहते थे।
– गुप्त काल में व्यापारियों की एक समिति होती थी जिसे ‘निगम’ कहते थे, निगम के मुखिया को ‘श्रेष्ठि’ कहते थे।
गुप्तकालीन धार्मिक जीवन
– गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म के अनुयायी थे इनकी उपाधि ‘परमभागवत’ थी।
– गुप्त काल ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म की उन्नति के लिए प्रख्यात है।
– समुद्र गुप्त ने बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपने पुत्र की शिक्षा–दीक्षा के लिए नियुक्त किया था।
– गुप्त काल के उत्तर भारत में वैष्णव धर्म अत्यधिक प्रचलित था।
– गुप्त काल में भगवान विष्णु के मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख है।
– गुप्त काल में विष्णु के अलावा नाग, सूर्य, शिव, यक्ष, दुर्गा, गंगा–यमुना आदि की उपासना होती थी।
गुप्तकालीन साहित्य और विज्ञान
– साहित्य, विज्ञान, कला व संस्कृति के चहुँमुखी विकास के दृष्टिकोण से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है।
– इसी काल को क्लासिकल युग या पेरीक्लीन युग के नामों से भी जाना जाता है।
– गुप्त काल में संस्कृत भाषा की उन्नति हुई तथा गुप्त काल की राजभाषा ‘संस्कृत’ बनी।
– गुप्त शासक संस्कृत भाषा व साहित्य के प्रेमी थे।
– प्रयाग प्रशस्ति समुद्र गुप्त को ‘कविराज’ कहती है।
– हरिषेण की प्रसिद्ध कृति ‘प्रयाग–प्रशस्ति’ है, जिसे इसमें ‘काव्य’ कहा गया है, इसका आधा भाग पद्य में तथा आधा भाग गद्य में है।
– वीरसेन ‘शाब’ की रचना – उदयगिरि गुहालेख है।
– कुमार गुप्त का प्रथम दरबारी कवि वत्सभट्टि था। वह संस्कृत का प्रकण्ड विद्वान था।
– मालव प्रदेश के दशपुर में सूर्य मंदिर स्थित है, इसका उल्लेख मंदसौर प्रशस्ति में है।
– कवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन था।
– कवि कालिदास ने सात ग्रन्थों की रचना की – कुमार संभव, रघुवंश, ऋतुसंहार, मेघदूत, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम्।
– कालिदास को ‘भारत का शेक्सपीयर’ कहा जाता है।
– ‘रघुवंश’ 19 सर्गों का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य हैं।
– कुमार संभव में 17 सर्ग हैं।
– सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ है। ‘किरातार्जुनीय’ महाकाव्य 18 सर्गों का भारवि ने लिखा।
– ‘मृच्छकटिकम’ नाटक शूद्रक ने लिखा जिसमें कुल 10 अंक हैं।
– मुद्राराक्षस व देवीचन्द्रगुप्तम् नाटक की रचना विशाखदत्त ने की।
– ‘वासवदत्ता’ की रचना सुबन्धु ने की।
– ‘चन्द्रव्याकरण’ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना बंगाली विद्वान चन्द्रगोमिन् ने की।
– ‘पंचतंत्र’ कथा संग्रह की रचना विष्णु वर्मा ने की। सर्वाधिक 50 भाषाओं में अनुवादित ग्रंथ है।
– ‘अमरकोष’ की रचना अमरसिंह ने की।
– कामन्दक का नीतिसार और वात्स्यायन का कामसूत्र गुप्त काल की रचना है।
– ‘रावणवध’ या ‘भटि्टकाव्य’ की रचना भट्टि ने की थी।
– वराहमिहिर की ‘वृहत्संहिता और अग्निपुराण’ रचना है।
विज्ञान एवं तकनीकी विकास
– गुप्त काल के आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं ब्राह्मगुप्त संसार के प्रसिद्ध नक्षत्र वैज्ञानिक और गणितज्ञ थे।
– आर्य भट्ट ने अपने ग्रंथ ‘आर्यभट्टीयम्’ (आर्यभट्टीयान) में सर्वप्रथम प्रस्तुत किया कि पृथ्वी गोल है, वह अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य का चक्कर लगाती है जिससे सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण होते हैं।
– आर्य भट्ट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया।
– वराहमिहिर की ‘वृहत्संहिता’ खगोल शास्त्र, वनस्पति विज्ञान तथा प्राकृतिक इतिहास का विश्वकोष है।
– पंचसिद्धान्तिका के टीकाकार वराहमिहिर थे इसके पाँच ज्योतिष सिद्धान्त– पितामह, वशिष्ठ, रोमक, पोलिश, सूर्य है।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार का प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि था।
– आर्य भट्ट चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों में शामिल नहीं थे।
– आर्य भट्ट ने गणित को ज्योतिष से अलग किया, ऐसा करने वाले ये प्रथम व्यक्ति थे। आर्यभट्ट ने आर्यभट्टीयम नामक गणित की पुस्तक लिखी आर्यभट्टीयम के चार भाग है-
(1) दशगीतिकापाद (2) गणितपाद (3) कालक्रियापाद (4) गोलापाद
– 800 ई. में आर्य भट्ट के ग्रंथ ‘आर्य भट्टीयम्’ का अरबी भाषा में अनुवाद ‘जीज-अल-बहर’ के नाम से जॉर्ज बूलर के द्वारा किया गया।
– वराहमिहिर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि पृथ्वी में कोई ऐसी शक्ति है, जो चीजों को अपनी ओर आकर्षित करती है।
– ब्रह्मगुप्त प्रथम ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को प्रतिपादित किया।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख (दिल्ली) गुप्तकालीन धातु-विज्ञान का अद्भुत नमूना है।
– बिहार के सुल्तान गंज से प्राप्त बुद्ध की खड़ी हुई ताँबे की प्रतिमा, एक टन वजनी और 71/2 फीट ऊँची है, धातु विज्ञान का उत्कृष्ट नमूना है।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबारी नवरत्न- कालिदास व धन्वन्तरी, वराहमिहिर, अमरसिंह, क्षपणक, शंकु, वेतालभट्ट, घटकर्पर तथा वररुचि।
– बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन गुप्त काल में रसायन व धातु विज्ञान का विद्वान था।
– नागार्जुन – सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि में रोग प्रतिरोधक क्षमता पाई जाती है। इनकी भस्म से रोग निवारण किया व पारे की खोज की।
– ‘रस चिकित्सा सिद्धांत’ की रचना नागार्जुन ने की।
– प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर की सर्वप्रमुख रचना ‘वृहज्जातक’ है।
– ‘पंचसिद्धान्तिका’, वृहत्संहिता, लघु जातक आदि वराहमिहिर की रचना है।
गुप्तकालीन वास्तुकला (मंदिर निर्माण कला)
– भारत में सर्वप्रथम गुप्तकाल में मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ।
– पहली बार शिखर युक्त मंदिर बनाए गए व सभा मंडपों का प्रयोग किया गया।
गुप्तकालीन प्रमुख मंदिर :
1. साँची का मंदिर :
– साँची के महास्तूप के दक्षिण–पूर्व की ओर बने इस मंदिर की संख्या 17 है।
– इसमें छत सपाट व गर्भगृह चौकोर है। सामने छोटा स्तम्भ युक्त मण्डप है। यह आकार में छोटा है।
– गुप्त काल का प्रारम्भिक मंदिर है।
2. भूमरा का शिव मंदिर :
– मध्य प्रदेश के सतना जिले में भूमरा नाम के स्थान पर है।
– गर्भगृह पाषाण निर्मित है, प्रवेश द्वार पर गंगा–यमुना की आकृति अंकित है।
– गर्भगृह के अन्दर एकमुखी शिवलिंग स्थापित किया गया है।
– के. डी. वाजपेयी ने वर्ष 1968 ई. में सतना जिले के उचेहरा के पास पिपरिया नामक स्थान से विष्णु मंदिर व मूर्ति की खोज की थी।
– इसके अलावा गुप्तकालीन मंदिरों के अवशेष सतना में खोह, नागौद, जबलपुर में मढ़ी स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
– भूमरा का मंदिर पाँचवीं शताब्दी ई. में बनाया गया।
3. तिगवां का विष्णु मंदिर:
– मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित है।
– तिगवां के विष्णु मंदिर के बीच में गर्भगृह है।
– स्तम्भों के ऊपर कलश व कलशों पर सिंह की मूर्ति है।
– प्रवेश द्वार के पार्श्वों पर गंगा, यमुना की आकृतियाँ उनके वाहन सहित उत्कीर्ण है।
4. एरण का विष्णु मंदिर :
– यह मंदिर मध्य प्रदेश के सागर जिले में एरण नामक स्थान पर स्थित है।
– यह विष्णु मंदिर अब ध्वस्त हो चुका है।
– केवल गर्भगृह का द्वार व सामने दो स्तम्भ खड़े हुए अवशेष बने हैं।
5. नचना – कुठार का पार्वती मंदिर
– मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में अजयगढ़ के समीप प्राप्त हुआ है।
– यह मंदिर पाँचवीं शताब्दी ई. में बनाए गए।
– यहाँ चारों ओर परिक्रमापथ बनाया गया है।
6. देवगढ़ का दशावतार मंदिर :
– यह मंदिर उत्तर प्रदेश के ललितपुर (प्राचीन झाँसी) जिले में देवगढ़ नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।
– यह मंदिर पंचायतन शैली में निर्मित है।
– इसमें गर्भगृह के ऊपर 12 मीटर ऊँचे शिखर का निर्माण किया गया है।
– यह गुप्त काल का प्रथम ‘शिखर’ वाला मंदिर है, जो वास्तु कला का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है।
– देवगढ़ के दशावतार मंदिर में वास्तुकला का विकसित रूप पाया जाता है।
– इसमें 4 सभा मंडपों का निर्माण किया गया है।
– इसमें भगवान विष्णु को शेषशय्या पर विराजमान व नाभि से कमल निकलता हुआ तथा माता लक्ष्मी को पैर दबाते हुए दिखाया गया है।
7. भीतर गाँव का विष्णु मंदिर :
– यह उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में स्थित है। ईंटों से निर्मित प्रथम हिन्दू मंदिर है।
– इस मंदिर का निर्माण ईंटों से किया गया है।
– इस मंदिर की हजारों उत्खचित ईंटें लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
– यह वर्गाकार चबूतरे पर बना व गर्भगृह भी वर्गाकार है। गर्भगृह के सामने मण्डप है।
– यह मंदिर भी शिखर युक्त है, भारत में पहली बार इसके शिखर में ‘महराबों’ का प्रयोग।
– बाहरी दीवारों में बने ताखों में गणेश, आदिवाराह, नदी, दुर्गा आदि की मृण्मूर्तियाँ रखी गई हैं।
– छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के सिरपुर नामक स्थान से ईंटों से निर्मित एक अन्य मंदिर प्राप्त हुआ है, इसे ‘लक्ष्मण मंदिर’ कहा जाता है।
– राजस्थान के कोटा से मुकन्द दर्रा (कोटा का दर्रा) से मंदिर प्राप्त हुआ जो प्रारम्भिक गुप्त मंदिर है।
– शिव मंदिर – खोह (नागौद, मध्य प्रदेश)
मंदिरों की मुहर :
– गया (बिहार) के विष्णु पाद मंदिर की मुहर में ‘विष्णुपाद स्वामी नारायण’ शब्द खुदे थे।
– वैशाली के सूर्य मंदिर की मुहर पर ‘भगवतो आदित्यस्य’ यह शब्द खुदे थे।
स्तूप तथा गुहा – स्थापत्य कला :
– गुप्तकालीन दो बौद्ध स्तूप – राजगृह स्थित ‘जरासंध की बैठक’ सारनाथ का धमेख स्तूप का निर्माण इसी काल में हुआ।
– नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालन्दा में बुद्ध का भव्य मंदिर बनवाया था।
अजंता की गुफाएँ
– यह महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के अनिष्ठा गाँव में स्थित है।
– यहाँ कुल 29 गुफाएँ हैं।
– गुप्तकालीन गुफा संख्या 16 व 17 हैं।
– खोज – 1819 ई. में मद्रास रेजीमेन्ट के एक सैनिक विलियम एरिस्कन के द्वारा की गई।
– इन गुफाओं का निर्माण वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन II के सामन्त वराहदेव, व्याघ्रदेव द्वारा करवाया गया था।
– इन गुफाओं का आकार घोड़े के पैर के नाल के आकार का है।
– चैत्य गुफाएँ (बिहार बौद्ध मठ) की संख्या चार है, जो गुफा संख्या 9, 10, 19 और 26 में स्थित हैं।
– पहले सर्वाधिक चित्र गुफा संख्या – 16 में थे, परन्तु अब सर्वाधिक चित्र गुफा संख्या – 17 में हैं, इसे चित्रशाला कहा जाता है।
– कई इतिहासकारों के अनुसार गुफा संख्या 16, 17 व 19 गुप्तकालीन मानी गई हैं लेकिन प्रामाणिक पुस्तकों में केवल गुफा संख्या – 16 व 17 का उल्लेख हैं।
– अजंता गुफाओं के चित्र पारलौकिक (धार्मिक) है।
– गुफा संख्या – 8 व 13 हीनयान (बौद्ध) से संबंधित है।
– इन समस्त गुफाओं में गुफा संख्या – 13 सबसे प्राचीन गुफा है।
– अजन्ता की गुफा बौद्ध धर्म के महायान शाखा से संबंधित हैं।
गुफा संख्या – 16
– भगवान बुद्ध के वैराग्य उत्पन्न होने के 4 दृश्य मिलते हैं।
– उपदेश सुनते हुए भक्तगण।
– मरणासन्न अवस्था में राजकुमारी का चित्र सबसे प्रसिद्ध चित्र। इस गुफा का सबसे प्रसिद्ध चित्र।
– यह राजकुमारी भगवान बुद्ध के भाई नंदिवर्धन की पत्नी – सौन्दरी।
– यह गुफा अजन्ता के विहारों में सबसे उत्कृष्ट हैं।
गुफा संख्या – 17
– वर्तमान में सर्वाधिक चित्र इसी गुफा में है इसलिए इसे चित्रशाला भी कहा जाता है।
– इसमें बुद्ध के गृहत्याग का (महाभिनिष्क्रमण) का चित्रण किया गया है।
– भगवान बुद्ध की पत्नी यशोधरा द्वारा अपने पुत्र ‘राहुल’ को दान में देते हुए (त्याग) का चित्रण किया गया है।
अजन्ता की गुफाओं के अन्य चित्र-
– झुला-झूलते हुए राजकुमारी का चित्रण-गुफा संख्या-2
– बैठी हुई स्त्री का चित्र-गुफा संख्या-9
– पुजारियों का दल स्तूप की ओर जाते हुए-गुफा संख्या-9
– साँडों की लड़ाई-गुफा संख्या-1।
– गुफा संख्या 1 में पुलकेशिन द्वितीय द्वारा ईरानी शासक परवेज शाह खुसरो का स्वागत करते हुए दिखाया गया है।
गुप्तकालीन मूर्तिकला (मूर्ति निर्माण) के प्रमुख केन्द्र-
मथुरा:- इस मूर्तिकला में खड़े बुद्ध की प्रतिमा को दर्शाया गया है।
सारनाथ:- इस मूर्तिकला में बैठे हुए बुद्ध की प्रतिमा को दर्शाया गया है।
पाटलिपुत्र:- सुल्तानगंज (बिहार) से बुद्ध की 7-5 फीट ऊँची ताँबे की प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो वर्तमान में बरमिंघम संग्रहालय में है।
– गुप्तकाल की मूर्तियों में कुषाणकालीन नग्नता एवं कामुकता का पूर्णत: लोप हो गया था।
– कुषाण कला से प्रभावित एक मात्र बुद्ध की मूर्ति मथुरा शैली में निर्मित है यह मनकुंवर (प्रयागराज) से मिलती है।
– गुप्तकालीन धातु मूर्तिकला में नालन्दा तथा सुल्तानगंज की बुद्ध की मूर्ति उल्लेखनीय है।
– गुप्तकाल में चित्रकला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस काल की चित्रकला के अवशेष अजन्ता (महाराष्ट्र के औरंगाबाद में) तथा बाघ (मध्य प्रदेश) गुफाओं से प्राप्त होते हैं।
– बाघ की गुफाएँ ग्वालियर के समीप विंध्यपर्वत को काट कर बनाई गई थी। 1818 ई. में डैजरफील्ड ने इन गुफाओं को खोजा, जहाँ से 9 गुफाएँ मिली है। बाघ गुफा के चित्र आम जन-जीवन से संबंधित है। (लौकिक जीवन)
– महरौली लौह स्तम्भ से जानकारी मिलती है कि चन्द्रगुप्त ने विष्णु पद नाम पर्वत पर विष्णु स्तम्भ स्थापित करवाया था।
शैव मूर्तियाँ-
– करमदण्डा – शिव की चतुर्मुखी मूर्ति
– खोह – एकमुखी शिवलिंग
– गुप्तकालीन शिव के अर्धनारीश्वर रूप की दो मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है।
– भूमरा के शिव मन्दिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग स्थापित है।
– विदिशा से शिव के हरिहर स्वरूप की प्रतिमा जो इस समय दिल्ली संग्रहालय में हैं।
– गुप्तकाल की बनी मयूरासनासीन का कार्तिकेय की एक सुन्दर मूर्ति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है।
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य:-
– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ‘’कालिदास’’ को अपना दूत बनाकर ‘’कुंतल’’ देश भेजा।
– फाह्यान–चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल के दौरान-भारत आया। वह 399 ई.-414 ई. तक भारत में रहा।
– ‘फाह्यान भारत में धर्माचार्य के रूप में आया।
– बौद्ध धर्म के विस्तृत ज्ञान प्राप्त हेतु भारत आया।
– उसका ग्रंथ ‘फो-क्यों-की’’ है अपने इस ग्रंथ में ‘’चन्द्रगुप्त द्वितीय’’ के बारे में उल्लेख नहीं किया है।
– उसने मध्य प्रदेश, पाटलिपुत्र (मगध) को ब्राह्मणों का देश बताया।
– लोग मांस, लहसुन नहीं खाते।
– लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाते थे।
– मध्य प्रदेश के लोग व्यापार हेतु ‘’कौड़ियों’’ का प्रयोग करते थे।
– फाह्यान ने न्याय व्यवस्था का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-‘’राज्य में अपराध नहीं के बराबर।’’
– प्रथम राजधानी-पाटलिपुत्र।
– ब्राह्मणों को दंड नहीं दिया जाता था।
– बार-बार अपराध करने पर ‘’अपराधी का दाहिना हाथ काट लिया जाता था।’’
– चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय साम्राज्य की दूसरी राजधानी ‘’उज्जैन’’।
– गुप्त शासकों ने सर्वाधिक स्वर्ण के सिक्के जारी किए। सोने के सिक्कों को ‘’दीनार’’ कहा गया।
– गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों का स्थान गौण था।
– स्त्रियाँ व्यक्तिगत सम्पत्ति समझी जाती थीं। बाल विवाह प्रचलन था तथा पर्दाप्रथा केवल उच्च वर्ग में प्रचलित थी। सती प्रथा का प्रचलन था।
– सती प्रथा का प्रथम उल्लेख 510 ई. के भानगुप्त एरण अभिलेख से मिलता है।
– गुप्तकाल में नारद ने 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। दासों की स्थिति दयनीय थी, दासत्व से मुक्ति का पहला प्रयास नारद ने किया।
– मनु ने 7 प्रकार के दासों का उल्लेख किया।
प्रयाग प्रशस्ति-
– यह प्रशस्ति अशोक के प्रयाग-कौशाम्बी स्तम्भ लेख पर उत्कीर्ण है।
– इसकी रचना हरिषेण द्वारा की गई तथा उत्कीर्णकर्त्ता तिल भट्ट थे।
– इसकी भाषा विशुद्ध संस्कृत थी व लिपि ब्राह्मी लिपि थी।
– इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को सौ युद्धों का विजेता तथा उसके ऊपर सौ घावों का उल्लेख मिलता है।
– प्रयाग-प्रशस्ति में ‘’अश्वमेध यज्ञ’’ का उल्लेख नहीं मिलता है।
– उदयगिरि का गुहाभिलेख (विदिशा, मध्य प्रदेश)
– निर्माण:- हरिषेण के पुत्र-वीरषेण द्वारा करवाया गया।
– गुफा में शिव मंदिर का निर्माण करवाया गया।
मथुरा स्तम्भ लेख-
– यह अभिलेख चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय था।
– मथुरा स्तम्भ लेख में जैन तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है।
– चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा प्रचलित गुप्त संवत् की पहली बार जानकारी मिलती है।
पूना ताम्र पत्र (महाराष्ट्र)
– पूना ताम्र पत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त द्वारा उत्कीर्ण करवाया गया था।
– इसमें शकों पर विजय व वाकाटकों के साथ गठबंधन का उल्लेख मिलता है।
– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक शासक रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया इसी की सहायता से इसने शकों को पराजित किया तथा शकों को पराजित करने के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की।
– इसमें धरण गौत्र का उल्लेख मिलता है।
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